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सैय्यद अहमद मुज्तबा – “वामिक जौनपुरी”

सैय्यद अहमद मुज्तबा “वामिक जौनपुरी” 23 अक्टूबर 1909 को एतिहासिक शहर जौनपुर से लगभग आठ किमी दूर कजगांव में स्थित लाल कोठी में एक बड़े जमीदार घराने में एक आला अफसर के बेटे के रूप में पैदा हुए | माँ का नाम था अश्र्फुन्निसा बीवी और पिताजी का नाम था खान बहादुर सैय्यद मोहम्मद मुस्तफा, जिन्होंने फैजाबाद की दीप्ती कलेक्टरी की नौकरी से शुरू करके बरेली की कमिश्नरी से अवकाश पाया| पांच साल की उम्र में शिक्षा-दीक्षा के लिए अपने नाना मीर रियाउद्दीन साहब की अतालिकी में दे दिए गए| ‘मौसूफ़ बहुत बूढ़े थे और अफीम, चाय के बहुत आदि थे| और हर वक्त हुक्का पिया करते थे| चुनाचे दो साल तक यह बगदादी क़ायदा खत्म नहीं हुआ|’ हाँ, उनकी सोहबत में बेशुमार लतीफे, अजीबोगरीब वाक्यात, कदीम दास्तानो, तिलिस्मे होशरुबा, किस्सा-ऐ-चहारदरवेश, दास्ताने आमिर हमजा और अलिफ़ लैला से परिचित होने का मौका मिला| अपनी दूसरी पोस्टिंग पर मुस्तफा साहब परिवार साथ सुल्तानपुर आ गए | जहा इनकी उर्दू और अंग्रेजी की शिक्षा शुरू हुई| बारांबकी में भी यही सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक बकायदा गवर्नमेंट हाई स्कूल बारांबकी के पांचवे दर्जे में दाखिल नहीं हो गए| फ़ुटबाल, हांकी और शिकार का चस्का लगा| इसी दौरान मुंसिफ मौहम्मद बाक़र साहब और मुमताज हुसैन जौनपुरी से फन्ने खत्ताती ( कैलीग्राफी) सीखी| रिटायर होकर वतन लौटने के बाद कश्मीर से लाए भोजपत्रो पर मीर अनीस, मिर्ज़ा ग़ालिब, टैगोर और इकबाल के प्रिय प्रतिक शाहीन के चित्रों के अलावा नजीरी के दो फारसी शेर, अपना एक शेर और अपने नाम की सजा यानी आधे मिसरे में अपना नाम काली वीटो इंक से बनाकर उन्होंने अपना ड्राइंग रूम सजाया था|

1926 में इंटर करने के लिए गवर्नमेंट इंटर कालेज, फैजाबाद भेजे गए| बचपन में घर के इस्तेमाल की मामूली मशीने ठीक करते देख पिता ने इंजिनियर बनाने की ठान ली थी| पुरानी दास्तानो और सफरनामो में दिन बीतते और हाकी फ़ुटबाल के मैदान में शामे| कालेज की दोनों टीमों में तो ले लिए गए लेकिन इम्तिहान में फ़ैल हो गए| स्कूली किताबो में मन नहीं लगता था| कोर्स के बाहर की किताबो में तब की दिलचस्पी आखिरी दिनों तक कम न हुई| 1929 में लखनऊ यूनिवर्सिटी में बी.एस.सी में दाखिला लिया और महमूदाबाद हॉस्टल में रहे| पी. वी. जोशी के भतीजे आनंद जोशी भी रहे| फिर फ़ेल हुए और बी. ए. में दाखिला लिया| कौर्स का बोझ कुछ कम हुआ तो अंग्रेजी और उसके माध्यम से विश्व साहित्य खंगाल डाला| उर्दू में मोहम्मद हसन आजाद, शिबली, हाली, मेहंदी अफादी, सैय्यद हैदर यलदरम और नियाज फतेहपुरी को भी पढ़ गए| आजादी की लड़ाई में शामिल होने की ललक असहयोग आंदोलन के समय ही हो गयी थी लेकिन पिता का असर के कारण यह जज्बा दबा ही रहा| फैजाबाद की पढाई के दौरान वही जेल में हुई अशफाकउल्ला खां की फांसी की घटना ने उन जैसे बेफिकरे को भी अशफाकउल्ला जिंदाबाद, महात्मा गाँधी जिंदाबाद, अंग्रेज हुकूमत जिंदाबाद, बर्तानिया मुर्दाबाद के नारे लगाने पर मजबूर कर दिया|

इन्ही आंतरिक संघर्ष के दिनों में उन्हें यह जानकर कुछ सुकून मिला की उनके खून में उबाल ले रहा बगावत का यह जज्बा विरासत में उन्हें अपने दादा मौलाना हशमत अली से मिला था जो चौथी पीढ़ी में आकर कसमसा रहा था| मौलवी साहब का एक हुक्मनामा उनके कारिंदे के नाम पकड़ा गया, जिसमे लिखा था, ‘बागियान को उजरत पूरी देना|’ सन सत्तावन के लाखो अनाम शहीदों में एक हो जाने के करीबी थे की इसी बीच उनके बड़े साहबजादे जो इलाहबाद कौर्ट के बड़े वकील और अंग्रेजो के प्यारे थे, बागियान को गलती से लिखा गया लफ्ज़ बागवान बता कर छुडा लाए| मौलाना ने अपने बेटे को इसके लिए कभी माफ़ नहीं किया और बाकि जिंदगी अपने कमरे में अकेले गुजर दी| चुकी अंग्रेजो का राज था, उनकी दुहाई बज रही थी| मौलाना की चर्चा घर में दबी जबान से राजघराना ढंग से होती थी| बहरहाल, बगावत की वह शाहराहे-जिंदगी जिस पर उन्हें आगे चलकर सफर करना था, अभी दिल्ली दूर बनी हुई थी| घुटन, उलझन और बेमकसद जिंदगी का अहसास तब तक बना रहा जब तक किसी ने उन्हें प्रोफ़ेसर डी.पी. मुखर्जी तक नहीं पंहुचा दिया| 1936 में ही होटल सेकेट्री की हैसियत से एक आल इण्डिया मुशायरा कराया हालाकि खुद शेर करने से अभी दूर थे| किस्सा कोताह, 1926 में इंजिनियर बनने निकले थे 1937 में वकील बनकर निकले| ट्रेनिंग पूरी की और फैजाबाद में औसत दर्जे का मकान, फर्नीचर-किताबे और मुंशी का जुगाड करके प्रेक्टिस शुरू कर दी| मुंशी होशियार और तजुर्बेकार था| वेतन के बजाय 40 फीसद हिस्सा लेना पसंद करते थे| साल भर में घर से पैसे लेने की जरुरत न रही और परिवार भी फैजाबाद आ गया| लेकिन शायरी को यह चैन मंजूर न था| शायरी की शुरुवात भी यही फैजाबाद में हुई, एक लतीफे के साथ| मकान के आधे हिस्से में मकान मालिक हकीम मज्जे दरियाबादी रहते और मतब करते थे|

बाकी आधे में वामिक साहब का चेंबर और घर था| हकीम साहब शेरो-शायरी के शौकीन थे और खुमार बारंबकवी और मजरूह सुल्तानपुरी आये दिन आते रहते| सलाम मछलीशहरी फारविस स्कुल में पढ़ने के बाद पी.डब्ल्यू.ए. का झंडा बुलंद किये हुए थे| आये दिन शेरो-शायरी की महफिले जमती| एक अदबी अंजुमन भी बनी और हर पखवाड़े तरही-नशिश्ते (समस्यापूर्ति-गोष्ठिया) होती| इनमे आते-जाते वामिक को लगा की ज्यादातर मोकामी शायर खराब और बसी शेर पढते हाई और यह भी कि जो शेर किसी की समझ में न आता उसकी खूब तारीफ होती| पुरलुत्फ मिजाज़ ठहरा, एक मोतबर नौजवान को शुरू 1940 में चंद मोहमल ( निरर्थक) शेर कहकर दे दिए| खूब दाद मिली| दूसरी बार किसी को ऐसी ही ग़ज़ल कह कर सुनाने को दी तो हकीम जी ताड़ गए| और उन्ही के इसरार पर गज़ले कही शेर मौज़ू करने कि मशक के लिए| ‘नया अदब’ मंगाना शुरू किया और नए अदीबो को जम कर पढ़ा| नौचंदी के मेले कि एक धार्मिक सभा में एक जोशीली नज्म पढ़ दी, जिसका केद्रीय भाव यह था कि गुलामो कि इबादत भी कबूल नहीं होती हाई| स्थानीय साप्ताहिक ‘अख्तर’ में छपी तो सी.आई.डी. ने डी.एम, को रिपोर्ट कर दी| डी.एम्. खानबहादुर का दोस्त था| बंगले पर बुलाया और तुरंत जिला छोड़ देने को कहा, हटे नहीं, फिर बाप के बुलावे पर इटावा गए जहा वे डी.एम. थे| तांगे पर ही थे कि बाप ने डाट कर भगा दिया कि एन कमर-दर-अकरब (वृष्चिक लग्न) में आये हो| खुद भी गर्दिश में पड़ोगे और मुझको भी डालोगे, अभी इसी वक्त उलटे पाँव जहा से आये हो वही लौट जाओ| पता नहीं नक्षत्र शायरी को या शायरी नक्षत्र को चला रही थी| आप लौटने के बजाय अपने मामा के पास जौनपुर चले गए| चंद महीने बाद चुपचाप किताबे-फर्नीचर बांट मकान खली कर दिया और वतन लौट आये|

पहला काम यह किया की मश्क के लिए कही गज़लों को नष्ट कर दिया और शायरी की नयी राह पर कमर कास कर निकल पड़े | नौकरी की तलाश में राजधानियो के कई चक्कर लगाये लेंकिन हाथ लगे शेर | लखनऊ राहे हो या दिल्ली, शायरी का बाज़ार गर्म रहा | अगस्त 1943 में अलीगढ में बंगाल के अकाल की रिपोर्ट किसी अखबार में पढ़ी, घर आये, बीवी से कुछ रूपये क़र्ज़ लिए और कलकत्ता जा पहुचे | ऐसे ही महाकाल का नर्तन देख जब ट्रेन में सवार हुए तो लगा की सडती हुई लाशो के दलदल से निकल कर आ रहा हू | और ऐसे ही एक रात बिस्तर पर लेटते ही एक मिसरा कौंधा – भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल – फिर दो कर्वातो में दूसरा और फिर बाकी धारा प्रवाह | उन्ही के शब्दों में, “ इसके बाद तो बोल इस तरह कलम से तरशा होने लगे जिस तरह से ऊँगली कट जाने पर खून के कतरे|

शायद इसी को इस्तलाहन इल्का (इश्वर की और से दिल में डाली गयी बात) कहते है |” भूका बंगाल का कई भारतीय भाषाओ में अनुवाद किया गया | 1944 की शुरुवात में क्वींस कालेज बनारस में लोगो की फरमाइश पर ‘भूका बंगाल’ पढ़ी | वाहवाही लुटी | मुशायरा खत्म होने पर सयोंजक अख्तरुल अंसारी जो वहा के सप्लाई अफसर भी थे, उन्हें ए.डी.एम. बनारस के यहा खाने पर ले गए जिन्होंने रसूलो को अमली जामा पहनाने का मौका देने के बहाने Hording and profiteering prevention inspector का पद पेश किया | साल भर बाद एरिया राशनिंग आफिसर बना दिए गए | इसी पद पर रहते पी.डब्लू.ए. की हैदराबाद कांफ्रेंस में शामिल हुए| जुलाई 1946 में दीप्ती राशनिंग आफिसर और अप्रेल 1948 में टाउन राशनिंग आफिसर हुए | कोई दो महीने बाद टर्मिनेट कर दिए गए शायरी जो आड़े आ गयी| पहला कविता संग्रह ‘चीखे’ 1948 में छपा|

रचनाए जिनमे ज्यादातर मुख़्तसर नज्मे है, का पसमज़र 1939 से 1948 तक खुनी मंज़र है | इसमें ‘पंजाब’ नाम से ‘तक्सिमे पंजाब’ और ‘वतन का मीरे कारवां’ नाम से ‘मीरे कारवां’ के पहले प्रारूप भी है| ‘जरस’ की भूमिका में प्रसिद्द आलोचक एहतेशाम हुसैन ने लिखा, ‘वामिक के अंदर गैर मामूली शायराना सलाहियते है’ ‘जरस’ 1950 में छपा| इसमें 46 नज्मे, 24 गज़ले और फुटकर अशआर शामिल है | आपने फिर प्रोफ़ेसर मसिउज्ज्मा के साथ ‘इंतिखाब’ पत्रिका भी निकाली | जुलाई 1949 में अपनी पुरानी नियुक्ति टाउन राशनिंग की अफसरी पर वापस आ गए| और जयपुर से बाराम्बकी का तबादला करवा लिया | हर इतवार को आले अहमद ‘सुरूर’ के मकान पर जलसा होता और वहा वामिक जरुर होते | वामिक साहब अपना आदर्श उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द तथा मशहूर शायर सज्जाद जहीर “बन्ने भाई” को मानते थे।

सैय्यद अहमद मुज्तबा का लोहा कैफी आजमी जैसे सुप्रसिद्ध शायद भी मानते थे। १९५०-५२ के दो साल कजगांव रहे, पार्टी सेल बनाया | इसी समय चीन में आयोजित पैसिफिक अमन कांफ्रेंस का निमत्रण मिला पर पासपोर्ट देर से मिलने के कारन न जा सके लेकिन विश्व शांति पर उनकी नज्म ‘नीला परचम’ तैयार हो गयी | इसी ज़माने में आपने अंग्रेजी ओड शैली में ‘ज़मी’ नज़्म कही | यह जाकिर हुसैन की प्रिय नज्म थी| अगस्त 1955 में उन्होंने अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के इंजीनियरिंग कालेज में आफिस सुपरिटेंडेंट का पद स्वीकार कर लिया | छोटे बेटे बाक़र और बेटी शिरी को लेकर अलीगढ चले गए और चाकरी करी| वहा 6 साल राहे | इसी दौर में प्रसिद्द नज़्म ‘फन’ कही | मजाज़ की मौत की खबर यही मिली | एक रेडियो नाटक ‘बाजहस्त’ लिख कर श्रद्धांजलि दी | 1960 के अंत में पकिस्तान रायटर्स गिल्ड द्वारा आयोजित मुशायरे में भाग लेने गए | जहा जोश मलीहाबादी, कुर्रतुलएन हैदर, रईस अमरोहवी और जान एलिया से मुलाकाते हुई | मृत्यु से कुछ साल पहले का दौर छोड़कर जौनपुर निवास रचनात्मकता का जबरदस्त दौर था | इसी दौर में उन्होंने नर-क्लासिकी अंदाज की बेहतरीन गज़ले, गज़ल पर एक मुकम्मल किताब जैसी अमर कृति ‘गज़ल-दर-ग़ज़ल’ के अलावा ‘जहानुमा’, ‘सफर-नातमाम’, ‘हम बुजदिल है’, ‘एक दो तीन’ , ‘कुल अदम कुनफ़का’ जैसी कई शाहकार नज्मे लिखी | इनमे से कुछ शबचराग (1978) और बाकि सफरेतमाम (1990) में छपी है | कुछ और छपी बाकि अप्रकाशित है|

इसी दौर में सैय्यद अहमद मुज्तबा ने खुदाबख्श ओरियंटल पब्लिक लाइब्रेरी पटना के लिए अपनी आत्मकथा ‘गुफ्तनी-नागुफ्तनी’ लिखी | वामिक जितना जाने जाते है उतना पड़े नहीं गए | 1984 में उनकी 75 वी सालगिरह पर आयोजित सेमिनार, वामिक के बहाने हिंदी उर्दू की प्रगतिशील कविता पर बातचीत’ में उर्दू तरक्कीपसंदो की दो पीढ़ी के दिग्गज मौजूद थे लेकिन तान सबकी ‘जरस’ (1950) पर टूटती थी| जबकि ‘शबचराग’ को छपे 6 साल हो चुके थे | वामिक की शायरी में इकबाल की झलक मिलती है | आपको कई सम्मान भी मिले 1979 में ‘इम्तेयाजे मीर’, 1980 में सोवियत लैंड नेहरु अवार्ड, १९९१ में उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी सम्मान, 1998 में ग़ालिब अकादमी का कविता सम्मान | 21 नवम्बर 1998 को आपने अपनी लेखनी को विराम दिया और इस दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह गए|
(jakhira.com)

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