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नज़ीर अकबराबादी और उनकी नज़्म आदमीनामा

नज़ीर अकबराबादी का जन्म दिल्ली शहर में सन् 1735 में हुआ। बाद में इनका परिवार आगरा जाकर बस गया और वहीं इन्होंने आगरा के अरबी-फ़ारसी के मशहूर अदीबों से तालीम हासिल की। नज़ीर हिंदू त्योहारों में बहुत दिलचस्पी लेते थे और उनमें शामिल होकर दिलोजान से लुत्फ़ उठाते थे। मियाँ नज़ीर राह चलते नज़में कबने के लिये मशहुर थे। अपने टट्टू पर सवार नज़ीर को कहीं से कहीं आते-जाते समय राह में कोई भी रोककर फ़रियाद करता था कि उसके हुनर या पेशे से ताल्लुक रखनेवाली कोई नज़्म कह दीजिए। नज़ीर आनन – फानन में एक नज़्म रच देते थे। यही वजह है कि भिश्ती, ककड़ी बेचने वाला, बिसाती तक नज़ीर की रची नज़्में गा-गाकर अपना सौदा बेचते थे, तो वहीं गीत गाकर गुज़र  करनेवालियों के कंठ से भी नज़ीर की नज़्में ही फुटती थीं।

नज़ीर दुनिया के रंग में रंगे हुए एक महाकवी थे। इनकी कवितोओं में दुनया हँसती – बोलती, जीती – जागती, चलती – फिरती और जीवन का त्योहार मनाती नज़र आती है। नज़ीर एक ऐसे कवी हैं, जन्हें हिन्दी और उर्दु दोनो भाषाओं के आम जन ने अपनाया. नज़ीर की कवितायँ, हमारी राष्ट्रय एकता की मिसास है, जिन में कई जातियों, कई प्रदेश, कई भाषाएँ और कई परंपराँ होते हुए भी सब में एकता है।

नज़ीर अपनी रचनाओं में मनोविनाद करते हैं। हँसी – ठिठोली करते हैं। ज्ञानी की तरह नही, मित्र की सलाह – मशविरा, जीवन की समालोचना करते हैं। सब ठाठ पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा जैसी नसीहत देनेवाला यह कवि अपनी रचनाओं में जीवन का उल्लास ओर जीवन की सच्चाई उजागर करता है।

प्रस्तुत नज़्म आदमी नामा में नज़ीर कुदरत के सबसे नायाव बिरादर आदमी को आईना दिखाते हुए उसकी अच्छाइयों, सीमाओं ओर संभावनाओं से परिचित कराया है। इस संसार को ओर भी सुंदर बनाने के संकेत भी दीए हैं।

दुनियां में बादशाह है सो है वह भी आदमी।
और मुफ़्लिसो गदा है सो है वह भी आदमी।
जरदार बेनवा है, सो है वह भी आदमी।
नैंमत जो खा रहा है, सो है वह भी आदमी।
टुकड़े चबा रहा है, सो है वह भी आदमी।

अब्दाल, कुतुबी, ग़ौस, वली आदमी हुए।
मुन्किर भी आदमी हुए और कुफ्र के भरे।
क्या-क्या करिश्मे, कश्फो करामात के किए।
हत्ता कि अपने ज़ोरो रियाज़त के ज़ोर से।
ख़ालिक़ से जा मिला है सो है वह भी आदमी।

फ़िरओन ने किया था जो दाबा खु़दाई का।
शद्दाद भी बहिश्त बनाकर हुआ खु़दा॥
नमरूद भी खु़दा ही कहाता था बरमला।
यह बात है समझने की आगे कहूं मैं क्या॥
यां तक जो हो चुका है सो है वह भी आदमी।

यां आदमी ही नार है और आदमी ही नूर।
यां आदमी ही पास है और आदमी ही दूर।
कुल आदमी का हुस्नो क़बह में है यां ज़हूर।
शैतां भी आदमी है जो करता है मक्रो जूर।
और हादी रहनुमा है सो है वह भी आदमी।

मस्जिद भी आदमी ने बनाई है यां मियां।
बनते हैं आदमी ही इमाम और खु़तबाख़्वां।
पढ़ते हैं आदमी ही कु़रान और नमाज़ यां।
और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियां।
जो उनको ताड़ता है सो है वह भी आदमी।

यां आदमी पे जान को वारे हैं आदमी।
और आदमी पे तेग़ को मारे है आदमी।
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी।
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी॥
और सुन के दौड़ता है सो है वह भी आदमी।

नाचे है आदमी ही बजा तालियों को यार।
और आदमी ही डाले है अपने इज़ार उतार।
नंगा खड़ा उछलता है होकर जलीलो ख़्वार।
सब आदमी ही हंसते हैं देख उसको बार-बार।
और वह जो मसखरा है सो है वह भी आदमी।

चलता है आदमी ही मुसाफिर हो, ले के माल।
और आदमी ही मारे है, फांसी गले में डाल।
यां आदमी ही सैद है और आदमी ही जाल।
सच्चा भी आदमी ही निकलता है, मेरे लाल।
और झूट का भराहै सो है वह भी आदमी।

यां आदमी ही शादी है और आदमी ब्याह।
क़ाजी, वक़ील आदमी और आदमी गवाह।
ताशे बजाते आदमी चलते हैं ख़्वाह मख़्वाह।
दौड़े हैं आदमी ही तो मशालें जलाके राह।
और ब्याहने चढ़ा है सो है वह भी आदमी।

यां आदमी नक़ीब हो बोले है बार-बार।
और आदमी ही प्यादे हैं और आदमी सवार।
हुक्का, सुराही, जूतियां दौड़े बग़ल में मार।
कांधे पे रख के पालकी हैं आदमी कहार॥
और उसमें जो चड़ा है सो है वह भी आदमी।

बैठे हैं आदमी ही दुकानें लगा-लगा।
और आदमी ही फिरते हैं रख सर पे खोमचा।
कहता है कोई ‘लो’ कोई कहता है ‘ला रे ला’।
किस-किस तरह की बेचें हैं चीजें बना-बना।
और मोल ले रहा है सो है वह भी आदमी।

यां आदमी ही क़हर से लड़ते हैं घूर-घूर।
और आदमी ही देख उन्हें भागते हैं दूर।
चाकर, गुलाम आदमी और आदमी मजूर।
यां तक कि आदमी ही उठाते हैं जा जरूर।
और जिसने वह फिरा है सो है वह भी आदमी।

तबले, मजीरे दायरे, सारंगियां बजा।
गाते हैं आदमी ही हर तरह जा बजा।
रंडी भी आदमी ही नचाते हैं गत लगा।
वह आदमी ही नाचे हैं और देख फिर मज़ा।
जो नाच देखता है सो है वह भी आदमी।

यां आदमी ही लालो जवाहर हैं बे बहा।
और आदमी ही ख़ाक से बदतर है हो गया॥
काला भी आदमी है कि उल्टा है जूं तबा।
गोरा भी आदमी है कि टुकड़ा सा चांद का॥
बदशक्ल, बदनुमा है सो है वह भी आदमी।

एक आदमी हैं जिनके यह कुछ ज़र्क बर्क़ हैं।
रूपे के उनके पांव हैं सोने के फ़र्क हैं॥
झुमके तमाम ग़ब़ से ले ताबा शर्क़ हैं।
कमख़्वाब, ताश, शाल दोशालों में ग़र्क हैं॥
और चीथड़ों लगा है सो है वह भी आदमी॥

एक ऐसे हैं कि जिनके बिछे हैं नए पलंग।
फूलों की सेज उनपे झमकती है ताज़ा रंग॥
सोते हैं लिपटे छाती से माशूक शोखो संग।
सौ-सौ तरह से ऐश के करते हैं रंग ढंग॥
और ख़ाक में पड़ा है सो है वह भी आदमी॥

हैरान हूं यारो देखो तो क्या यह स्वांग है।
और आदमी ही चोर है और आदमी थांग है॥
है छीना झपटी और कहीं मांग तांग है।
देखा तो आदमी ही यहां मिस्ले रांग हैं॥
फौलाद से गढ़ा है सो है वह भी आदमी॥

मरने पै आदमी ही क़फ़न करते हैं तैयार।
नहला धुला उठाते हैं कांधे पै कर सवार॥
कलमा भी पढ़ते जाते हैं रोते हैं ज़ार-ज़ार।
सब आदमी ही करते हैं, मुर्दे के कारोबार॥
और वह जो मर गया है सो है वह भी आदमी॥

अशराफ़ और कमीने से ले शाह ता वज़ीर।
हैं आदमी ही साहिबे इज़्ज़त भी और हक़ीर॥
यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर।
अच्छा भी आदमी ही कहाता है ऐ ‘नज़ीर’॥
और सब में जो बुरा है सो है वह भी आदमी॥

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